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गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

अच्छी होती रही कमाई पिछले साल
लेकिन जम कर नींद न आई पिछले साल

वैसे खूं का घूँट गटकने की आदत है
बार-बार आई उबकाई पिछले साल

जैसी पिछले साठ बरस से आती आईं 
वैसी ही सरकारें आई पिछले साल

लोहड़ी,होली,ईद,दिवाली,छठ की पूजा
लील गई सबको मंहगाई पिछले साल

जिन्हें कुबूला था और जिनसे तौबा की थी
फिर से वो गलती दुहराई पिछले साल

थक गए यहाँ-वहां जब दिल के डोरे डाल
अच्छी लगने लगी लुगाई पिछले साल

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

वो इन चालाकियों से आपसी व्यापार करते हैं
जमाना सोंचता है कि रूहानी प्यार करते हैं

अभी पहुंचा हूँ मै अपने उमर की  उन फसीलों पर
जहाँ पर लोग परदे डालते हैं ,आड़ करते हैं

दिखाते रौब हैं जो रात-दिन बीबी बिचारी पर
न जाने कितना अफसर का वही मनुहार करते हैं

बड़े होने से पहले जान लो बेटे रवायत को
कहाँ स्वीकार करते हैं,कहाँ इनकार करते हैं

लरजती उँगलियों से कांपती हुई झुर्रियां गिनकर
थके से जिस्म अपनी रात को गुलजार करते हैं