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शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

ग़ज़ल

शहर का शख्श हर उसके दवा की बात करता है
जिसके फजल से गूंगा सुना कि बात करता है

वो जिसकी जल गई बेटी बड़ा नादान है यारों
कचहरी में वकीलों से सजा की बात करता है

खुदा जाने किताबों में पढ़ाते हैं भला क्या-क्या
कि मेरा फूल सा बच्चा नफा की बात करता है

जहाँ से आजतक लौटा नहीं आशिक कोई जिन्दा
वहीँ का आदमी है यह वफ़ा की बात करता है

यक़ीनन तल्ख़ गम होगा,बहुत गहरा वहम होगा
भला वह क्यूँ उजालों में दिया की बात करता है

बुधवार, 8 सितंबर 2010

ग़ज़ल

वक़्त अपने बही-खाते खोल कर फुर्सत वसूले
इस तरह या उस तरह से ज़िन्दगी कीमत वसूले

आसमां,धरती,बगीचे,हवा,पानी का किराया
आदमी से सांस लेने की  रकम कुदरत वसूले

आपको जनतंत्र में दो जून की रोटी मिलेगी
मगर बदले में सियासत आपकी अस्मत वसूले

दुश्मनी तो दुश्मनी थी,क्या था हासिल दोस्ती का
जिल्लतें,शिकवे-गिले,रुसवाइयाँ  ,तोहमत वसूले

शौक से हम बाँट लेंगे आप सबका अनमनापन
कोई हमसे भी हमारी कुछ बुरी आदत वसूले

आइये हम फूंक दे ये कान में बच्चों के अपने
आदमी जो चाह ले तकदीर से किस्मत वसूले