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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

तस्वीरें

कैमरे में कोई हज़ार से ज्यादा
तस्वीरें होंगी
उन्हें इकठ्ठे  देख पाना तो मुश्किल है हीं
अगर याद करना पड़े कि
कौन सी तस्वीर कहाँ हो सकती है 
तो और मुसीबत 

लैपटॉप  तस्वीरों से भरा है 
उनमे खुद की उतारी 
तस्वीरों के अलावा 
दूसरों के द्वारा उतारी गई 
तस्वीरों का भी जखीरा है 

तस्वीरें फेसबुक,ऑरकुट पर भी हैं 

कुछ यादगार तस्वीरों को 
फ्रेम में जड़ कर 
घर की दीवारों पर टांगा  गया है 
कुछ शेल्फ में करीने से 
सजाई गईं हैं
एल्बम में पड़े तस्वीरों की भी 
कतई कमी नहीं है

बीते हुए समय की गवाह
नई और पुरानी कई तस्वीरें
यूँ हीं बेतरतीब 
आलमारी में पड़ी हैं 
उनमे से कुछ एक दूसरे से चिपक रही हैं 
कुछ पीली पड़  रही हैं 
कुछ पर सफ़ेद धब्बे सा
कुछ चस्पां होने लगा है

लेकिन
कुछ तस्वीरें कहीं नहीं हैं
न कैमरे में
न लैपटॉप में
न फ्रेम में
न एल्बम में
न तस्वीरों के मलबे में

वे गुम नहीं हुई हैं
वे धुंधली पड़ने का नाम नहीं लेतीं
वे आँखों में टंगी हुई है
शायद.  


  

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल

अजब सी ये नई 'चुप' है
गले में फंस गई 'चुप' है 

सड़क पर शोर हो चाहे 
घरों में हर कोई चुप है

घुटे सिर  हैं  पहाड़ो   के
सिकुड़ती हुई नदी चुप है

अँधेरा रात भर का  है 
सुबह तक रौशनी चुप है

मुझे ताज्जुब होता है 
कि कैसे शायरी चुप है 

जो तूफां साथ लाती है
यक़ीनन ये वही 'चुप'है     

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल

मै मसरूफ़,मै मुब्तिला हो चुका था
मै तहरीरों में गुमशुदा हो चुका था 

मेरे साथ इक हादसा हो चुका था 
मेरा मामला अलहदा हो चुका था 

ये असबाब,दौलत,ये शोहरत,ये चर्चा 
मेरे  वास्ते  बेमज़ा  हो  चुका  था 

वो ख्वाहिश,वो शै ,वो जुनूं,वो इबादत 
उमर भर का अब सिलसिला हो चुका था 

गगन में सितारे भी थे,सूर्य भी था 
खुदा जाने वह वक़्त क्या हो चुका था 

गमे-इश्क में ऐसा बिगड़ा नहीं कुछ 
हाँ ये है कि हल्का नशा हो चुका था 

सुकूं भी तो मिलता कहीं न कहीं था 
भले  दर्द  बेइंतिहा  हो चुका  था    

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

किनारे

नदी दो किनारों के बीच से 
होकर बह रही है
पहला किनारा थोडा ज्यादा खिलंदड है 
जब तब चुहल से 
अपना पानी दूसरे की ओर ठेल देता है 
घुंघराले बालों की लट जैसी लहरियां 
उभरती हैं 
और नदी के पानी में डूब जाती हैं

दूसरा किनारा दीखता तो संजीदा है
पर मौजें उसे भी छूती हैं
और मेला भी वहीँ लगता है 
ऐसे में उसकी भरसक कोशिश होती है 
कि कुछ खील-बताशे
पहले की ओर धकेले जाएँ

नदी किसी बुढ़िया की तरह
दिन-रात उनकी चौकसी करती है 
वे भी इसी ताक में रहते हैं 
कि कब नदी को झपकी आये 
और उनका खेल शुरू हो 

किनारे जानते हैं कि 
नदी जिद्दी है 
उन्हें ताउम्र अलग रखेगी
लेकिन इस गम से 
वे खेलना क्यों छोड़ दें. 

  

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

बच्चे:जवान:बूढ़े

बच्चे लगभग सारे ऐसे थे
जो समय से पहले बड़े हो चुके थे
कुछ ऐसे भी थे
जो बुढा गए से लगते थे
और उन्हें 'प्रोजेरिया' भी नहीं हुआ था

जवान
बहुधा अपने बचकानेपन से बाज नहीं आ रहे थे
कुछ जवान,जवानों की तरह 
तन कर भी खड़े थे 
तो बूढों की तरह झुक चुके 
जवानों के  नज़ारे   भी आम थे 

अधिकांश बूढ़े या तो मंदिर में बैठे थे 
या खांस रहे थे 
कुछ जरूर बच्चों की तरह ललचा रहे थे 
जबकि कुछ बूढों के भीतर 
बेपनाह जवानी जोर मार रही थी
वे वर्जिश कर रहे थे    

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल

चलो अब साफ़ कर के रंजो-गम की झाड़ियों  को 
मुहब्बत से सजा दें हम  दिलों की क्यारियों को 

सफ़र की मुश्किलों का खूब रख एहसास लेकिन 
घड़ी भर खिलखिला ले भूल जा दुशवारियों को 

अपुन के वास्ते इक सीधा-साधा जोड़ काफी
मुबारक लाभ-हानि का गणित व्यापारियों को

मुझे हैरत नहीं है के ये आखिर क्यूँ जमाना 
सनक कहता रहा है कीमती खुद्दारियों को  

ये हो सकता है कि फैशन में हो पोशाके-जंगल
समझ वनराज मत लेना फकत तुम धारियों को

न जाने क्यूँ मेरे दिल में है ये  उम्मीद बाकी
किसी दिन शर्तिया आएगी सुध अधिकारियों को  


सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल

न जाने कब से तेरी राह यूँ तकता रहा  हूँ
मुसाफिर खुद  रहा हूँ खुद हीं मै रस्ता रहा हूँ

रहा हूँ महफ़िलों में या कि मै तन्हा रहा हूँ
तुम्हारी जूस्तजू में रात-दिन खोया रहा हूँ

रियाया हूँ मै लेकिन हाकिमे-तू-सल्तनत है
मै सदियों से तेरे पैरों तले बिछता रहा हूँ

मिले मंजिल गवारा तुझको ही शायद नहीं है
मै अपनी ओर से हर वक़्त ही चलता रहा हूँ

खुदाया मेरी  आँखों को हंसी कुछ ख्वाब दे दे
बहुत दिन से अधूरी नींद मै जगता रहा हूँ

यही लगता है कि तुझको कोई परवा नहीं है
मै कहने को भला क्या क्या नहीं कहता रहा हूँ


शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

कवि की प्रेमिका

कवि अपनी प्रेमिका के सपने देख 
अक्सर उदास हो जाया करता था 
उसने सोंचा कि अब उसे शादी का प्रस्ताव 
रख हीं देना चाहिए
प्रेमिका पहले तो इधर उधर की बातें करती रही
फिर उससे
कविता सुनाने की जिद करने लगी
कवि बोला-लेकिन मैं कुछ और कह रहा हूँ
एंड आई एम सीरिअस
प्रेमिका साफ़गो थी
बोली-देखो भई,कोई मुझ पर कविता लिखे
तो मुझे जरूर अच्छा लगता है
बट,कवि से शादी करना ....
तुम खुद सोंचो
कवि हर्ट हुआ
बोला-मत भूलो कि  इस कविता की बदौलत हीं
तुम मशहूर हुई हो
प्रेमिका ने टालते हुए कहा-
अच्छा छोड़ो, इस बारे में बाद में बात करेंगे
लुक एट दैट ऑसम पेअर ऑफ़ पैरट्स
कवि और रुआंसा हो गया-
बट हाउ कुड यू बी सो मटिरिअलिस्टिक
प्रेमिका थोड़ी देर के लिए
असमंजस पे पड़  गई
संभलते हुए बोली
यार मै मटिरिअलिस्टिक नहीं होना चाहती
बट आई वांट टू बी रिअलिस्टिक
तुम इस कदर 
अपने दुःख मांजते और भांजते ही रहोगे 
आई नो यू कांट हेल्प 
बट आफ्टर मैरेज यू विल बोर मी
वैसे तुम्हारे लिए रेस्पेक्ट 
हमेशा रहेगी मेरे दिल मे
एंड एनी वे ,यू कैन ऑलवेज हैव  माय सोल.    


  

लड़का

लड़के के पिता पोस्टमैन थे
लड़के की कद-काठी
दरमियानी और रंग सांवला था
मगर लड़का
पैदाईशी  सवर्ण था
लड़का जब स्कूल में था
तो दलित हेडमास्टर साहब कहा करते थे
'सवर्ण भूखा भी हो तो पढ़-लिख लेता है'
पढ़ा-लिखा था भी वह
मगर नौकरी .......
लड़के के पिता ने कुंडली देख कर हीं कहा था
'संघर्षों से भरा जीवन होगा इसका'

घर में बंटवारे के बाद
डेढ़ बीघा जमीन उसके हिस्से आई थी
चौंतीस की उम्र को तो 
आधी ज़िन्दगी गुजर जाना हीं कहेंगे
फिर लड़का लग्न बाधा का भी शिकार था
पिता प्रायः कहते थे-
शादी हो भी जाये
तो खिलायेगा कहाँ से?
हमारा होटल
तो अब बंद हीं समझो

फ़िल्मी गाने लड़के का आसरा थे
वो रात को रेडियो
सिरहाने रख कर सोता था
और सुबह-सुबह
पाजामे पर कुरता डालना नहीं भूलता था

लड़का
मेट्रो टाउन में भी हाथ आजमा चुका था
सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी
तीन हज़ार की थी तो सही
लेकिन उसे लगता कि
कोई दिन-रात उसकी कनपटियों
 पर झापड़ लगा रहा है

एक दिन उसने सुना कि उसके गृह-राज्य में
'शिक्षा मित्र' नाम की गाडी खुली है
वह सर पर पैर रख कर भागा
जब तक घर पहुंचता
गाडी स्टेशन छोड़ चुकी थी

लड़का उठाने को तो हल भी उठा सकता है
पर आजकल
अपनी बदकिस्मती को
कंधे पर उठाए फिर रहा है.


   

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

वे

वे एक-एक कर 
आँखों के परदे उतार रहे थे
आईने पर गर्द की परत 
काई की तरह जमी हुई थी 
वे मिलकर 
मेहनत से उसे साफ़ कर रहे थे 
मगर फिर भी 
उनकी शक्लें फिसल जा रहीं थीं 

रातों की सियाही 
उनकी गोद में किसी चाकू की तरह आ गिरी थी 
वे बेरहमी से अपनी नींदें छील रहे थे 
हड्डियाँ उन्हें बेड़ियों की तरह जकड़ चुकी थीं 
अपने जिस्मों से 
बाहर निकलने की उनकी हर कोशिश 
बेकार चली जाती  थी.    

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

ऑन वैलेंटीन डे

संशयग्रस्त तो वह शुरू से था
उसे यकीन होना अब शुरू हुआ था
आकर्षण का मनोविज्ञान  भरसक मथने
और किताब के किताब चाटने के बाद
'प्रेम सच नहीं है
सच है वासना '
इसके अलावा वह दिल से ईमानदार भी होना चाहता था
उस औरत को साफ-साफ बतलाना चाहता था
कि वह प्रेम से अभिभूत नहीं है
वासना से वशीभूत है .

मगर वह औरत तो जैसे अपनी ही दुनिया में जी रही थी
जब-तब वह उसकी गंभीर लगने वाली बातों को
हँसी में उड़ा देती
और कभी-कभार उसके दार्शनिक चेहरे पर
फेंक कर मारती अपना चेहरा
वैसे भी शब्दों पर उसकी पकड़ वैसी नहीं थी
जैसी उन के गोलों और सलाइयों पर
वह मन ही मन कुढ़ ही रहा होता
कि वह गर्म पतीले को पकड़
अपनी उंगलियाँ जला डालती
'किन ख्यालों में खोई रहती हो तुम'
उसे यही  कह कर चुप हो जाना पड़ता.

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

लड़की

लड़की शाम को साइकिल चलाती थी
एक दिन उसकी माँ ने,
जो उसे बहुत प्यार करती थी,
कहा-
बेटा फ्राक पहन कर साइकिल मत चलाया कर
लड़की ने फ्राक से ज्यादा तवज्जो साइकिल को दी

शाम को दादी आँगन में बैठती
और छत पर बैठते कौवे
लड़की तेल डालकर दादी की चोटियाँ गूँथ देती
कौवों को उड़ाती धा-धा
और तब तक उन्हें उड़ता देखती
जब तक की उसकी आँखों का रंग आसमानी न हो जाता
कभी-कभी उसकी आसमानी आँखें
पड़ोस की छत पर खड़े लड़के की काली आँखों से टकरा जातीं
और लड़की के कान लाल हो जाते

फिर एक दिन लड़की के सपने में
वही लड़का आया
वह किसी और के साथ प्रेमरत था
मगर कनखियों से उसे देख रहा था
लड़की जब बिना बात के हंसने लगी
तो उसकी माँ ने,जो उसे बहुत प्यार करती थी,ताड़ लिया
की लड़की प्रेम में पड़ चुकी है

लड़की की लड़के से शादी हो गई
लड़के ने उसे बताया कि उसके पास उसके लिए
एक छोटा सा संसार है
और वह सच बोल रहा था
लड़की जो भी चाहती
उसे तत्क्षण मिल जाता
सिनेमा,हाज़िर
गोलगप्पे,हाज़िर
बिंदी-चूड़ी,हाज़िर
कपडे,गहने,हाज़िर
पूजा का थाल,विष्णु भगवान हाज़िर

वह जब चाहती लड़के की छाती से लग जाती
और घनी मूछों में छिपे उसके होठों को गीला कर देती
मगर फिर उसका मन उचटने लगा
उसने लड़के से गुजारिश की -
मझे कहीं सैर पर ले चलो
लड़का फ़ौरन राजी हो गया
वह उसे घर के पिछवाड़े वाले हिल  स्टेशन पर ले गया
लड़की को अच्छा तो लगा
पर कुछ अजीब भी लगा
वह जिद करने लगी कि
उसे पहाड़ों के उस पार जाना है
लड़का उसे देर तक समझाता रहा
उसकी माँ,जो उसे बहुत प्यार करती थी,ने भी
उसे फ़ोन पर समझाया
तो वह इस शर्त के साथ मान गयी कि
लड़का उसे 'बीच' पर ले कर जायेगा
लड़का पहले की तरह फ़ौरन राजी हो गया

वह उसे घर के बगीचे से लगे 'बीच'पर ले कर गया
'बीच'ने तो लड़की का जैसे मन मोह लिया
उसने फिर घनी मूछों में छिपे होठों को गीला करने की कोशिश की
और मचलते हुए कहा-
मुझे समंदर का दूसरा सिरा देखना है
लड़के ने इस बार लड़की की बातों को अनसुना कर दिया
उसने कैमरा निकाल लिया
लड़की खुश हो कर
अलग-अलग पोज में फोटो खिंचवाने लगी .          

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

दुःख

१.
सहर तो रेशमी ही थी
नजरें हीं मिचमिचा रहीं थीं
अँधेरा एक जूनून  की तरह तारी था
सीलन लगे अफसानों की कोई दिन-रात
सीवन उधेड़ रहा था
परिंदा बदन पर आ कर पल भर को बैठता था
और हाथ बढ़ाते हीं फुर्र से उड़ जाता था

२.
लफ्ज आगे बढ़ रहे थे
मानी पीछे छूटता जा रहा था
चेहरा खुशमिजाज जान पड़ता था
माथे पर सिलवटें नही थीं
रोजमर्रा के काम फुर्ती से निपटाए जा रहे थे
कैसे जाहिर होता
दुःख
रगों में उतर चुका था
लहू के साथ बह रहा था  

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

शून्य

जानता हूँ कि इस शून्य से खुद को गुणा करूँ
तो स्वयं शून्य में तब्दील हो जाऊंगा
लेकिन आँखों की पुतलियों में शून्य जैसे जम सा गया है
और धीरे-धीरे पिघल कर
पलकों को बोझिल बना रहा है

शून्य के शक्ल की एक स्पंज की गेंद
लगता है कलेजे में ढब-ढब कर रही है
और किसी क्षण उछल कर
बाहर आना चाहती है

कान जो आवाजें सुन रहे हैं
वे भी दिमाग में पहुँच कर
शून्य का बुलबुला बन जा रहे हैं

शून्य तो मुझे बार-बार परे धकेल रहा है
मै हीं इस शून्य के भीतर चल कर
ना जाने कहाँ पंहुचना चाहता हूँ.
 

नजरिया

 उसने बताया कि वो बहुत 'फन लविंग' है
और उसका सीधा फंडा है -एन्जॉय योर लाइफ
मुझे पूछना पड़ा
फिर मुझसे दोस्ती क्यों करना चाहते हो
उसने कहा-क्यों,तुम कवि हो
कविता आज की फैशन में है
और फिर मुझे भी लगता है कि poets are very cool
मैंने कहा धत्त
मै तो अब तक यही  मान के बैठा था कि
poets are sentimental fool.    

नमकीन की रेहड़ी

उस रेहड़ी वाले से मैंने दस रुपये के नमकीन ही तो ख़रीदे थे.लेकिन खुले पैसे वापस करते हुए वह इस निश्चलता से हँसा कि हँसी उसके होठों की कोरों से निकलती हुई उसकी आँखों में जाकर ठहर गई.और ठहरी भी कहाँ?उसने मेरे दिलो-दिमाग को छुआ और मै सोंचने पर मजबूर हो गया.
मैं इस तरह आखिरी बार कब हँसा था?
ऐसा नहीं है कि मै हँसता नहीं हूँ. हँसता तो मै रोज हूँ, बीसियों बार.अपनी सोसाइटी में,दफ्तर में,राह चलते किसी परिचित के मिल जाने पर.मेरे होठ एक निश्चित मात्रा में फैलते हैं और यथास्थान  वापस आ जाते हैं लेकिन उस हँसी से मेरे दिल में तो दूर चेहरे तक में कोई स्पंदन नहीं होता .
इसके अलावा भी मै कई मौकों पर और कई बार हँसता रहा हूँ जैसे- दबी सी हँसी,कातरता की हँसी,'विनम्रता'की हँसी,ठकुरसुहाती हँसी,चिंता की हँसी,क्रोध की हँसी(मुन्ना भाई टाइप),झल्लाहट की हँसी,उकताहट की हँसी,खिसियाहट की हँसी,मिमियाहट की हँसी,अहम् की हँसी,लोलुप हँसी,हिकारत की हँसी,शर्मिंदगी की हँसी,दरिंदगी की हँसी .दूसरों की मुर्खता पर बाकायदा हँसता रहा हूँ मै .फूहड़ लतीफों पर भी हँसा हूँ ठहाके मार कर .जहाँ नहीं हँसना था वहां भी कई बार हँसा हूँ .एक-दो बार खुद पर भी हँसा होऊंगा इस दौरान .मगर आखिरी बार उस रेहड़ी वाले की माफिक कब हँसा था मै?सचमुच याद नहीं आता .
दरअसल ऐसी गतिमान हँसी हम तभी हंस सकते है जबकि जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण सरल हो और हमने अपने आपको विभिन्न जायज और नाजायज समीकरणों में उलझा नहीं रखा हो.ऐसी हँसी हंस कर हम अपने परिवेश को जाने अनजाने और अधिक संवेदनशील,सहानुभूतिपरक  और करुणामय बना देते हैं.शायद यह कहना भी गलत नहीं है कि हम अपनी कविताओं,कहानियों,ग़ज़लों या किसी और कला की दुरूह साधना के जरिये जो लक्ष्य साधना चाहते है, ऐसी सरल हँसी उसका शार्ट-कट हो सकती है.   

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

हाथ

एक पल के  लिए उन्हें सचमुच लगा
कि वे उसे पकड़ ही लेंगे
लेकिन उसे उनकी पकड़ में आना था नहीं
सो नहीं आया
वक़्त उनके हाथों से किसी पारे की मानिंद
फिसलता रहा,छिटकता रहा
छकाता रहा

उन्होंने पानी में कंकड़ फेंके
और लहरियों  को गिनने की कोशिश की

उन हाथों ने रेत के ढूहे भी बनाये
मगर चपल पैर भी वहीँ थे
जो दौड़ना चाहते थे
बेखबर पैरों ने रेत के ढूहों को ठोकर मार दी

हाथ कांपते रहे रह-रह कर
आखिर वे हाथ इतने निर्मोही कैसे हो गए
कि एक दिन अपना ही गला रेतने लगे.  

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

प्रेम

लकड़ी का तो था नहीं प्रेम
जिसे किसी कुल्हाड़ी  या आग का डर हो
या जो समय की लहरों पर तिरता रहता
प्रेम चुम्बक था और ठोस लोहे का बना था
शायद इसीलिए समय कि लहरों में जब पड़ा तो डूब गया
हमें यह तो लगता था कि पड़ा होगा प्रेम कहीं तलहटी  में गहरे
लेकिन जंग लगा हुआ लोहा भी हो सकता था वह
फिर एक दिन मैंने पारदर्शी समय में गोता लगा ही दिया
मैंने देखा कि लोहे में जंग नहीं लगा है
वह तो किसी सीपी में बंद पड़े-पड़े दो मोतियों में ढल गया है
मै क्या करता?
 दोनों मोतियाँ निकाल लाया
और हौले से तुम्हारी हथेलियों में धर दिया
तुमने उनकी दो मालाएं बनाईं
एक मेरे गले में डाल
एक खुद पहन लीं
अब वहीँ लटक रहा है प्रेम का मोती
हमारे ह्रदय को छू  रहा है .

  

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

Why CVC Thomas Should Go(Published in Indian Express' Letters column on 7th Feb.)

Even after aspersions cast by the supreme court on his appointment the stubborn way in which P.J.Thomas is clinging on to the post of CVC,engenders dangerous trends.So far brazen audacity to hold on to powerful position even in the face of major embarrassments has been an exclusive domain of our political class.But if it extends to the constitutionally protected bureaucratic posts,it will further corrode the faith of common man in the system which is already dwindling at an alarming rate.The oft repeated 'conspiracy theory' which he has been harping on has again been a rant of our politicos when put in dock.While it is an absolutely undeniable fact that governments should not be motivated to act merely on emotional public presumptions and unsubstantiated media trials,the case of the present CVC has stretched itself a touch too far.Even by government's own admission before the Court everything has not been above the board in the appointment of P.J.Thomas.What is particularly baffling in this regard is the fact that why does the government considers it indispensable to continue with a tainted person on a post which is expected to play the role of a watchdog?Moreover,as he is offering to keep himself out of the gambit of 2G spectrum probe,will it serve the purpose of a nation plagued by corruption charges to have a maimed CVC?His contention that civil servants are often smeared as they ascend the career ladder also does not hold water as there have been several instances of civil servants gracing sensitive constitutional posts and remain unblemished throughout their career.It is also not very difficult to decipher why the present day government is standing solidly behind him. In fact, this bellicose attitude of the government only smacks of a growing nervousness deep within arising out of unfolding of one after another wrong decisions which have caught it on back foot lately.However,the Manmohan Singh led government will do well to understand that its time it started the cleansing drive without any further delay and damage.






गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

Saffron Terror

The political circles of the country have of late been abuzz with not so familiar refrain of 'Saffron Terror'.It is obvious that the ruling dispensation has been lending its strong support to this growing chorus primarily with a view to furthering its political gains.However,even not so political ones are inclined to think that some of the recent revealations of the terror plots of the saffron-clad is a matter of genuine concern.It may be true that most of the worldwide terror attacks have largely been carried out by those who swear in the name of Islam,but if we refuse to take serious note of the dubious roles played by some of the practioners of hardline Hinduism,we would be merely precipitating an already exploding internal security situation.Moreover,it is a pity that none of the self procclaimed stalwarts of nationalism of the principal opposition party has come out to condemn in unequivocal terms the involvement of Hindu fanatic elements in these terrorist acts.In the present context it would be only pertinent to remind our politicos that barbaric sentiments always lie dormant in the back chambers of human psyche.If they are left unrestrained and keep getting fanned by unscruplous onlookers,it always results in mindless vandalism and insane acts of violence.