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रविवार, 30 जनवरी 2011

ग़ज़ल

अस्पताल के लिए कतारें एक तरफ
मंहगी और चमकती कारें एक तरफ

साहिब कुत्तों को पुचकारें एक तरफ
पशुवत बचपन की दुत्कारें एक तरफ

एक तरफ कानून,प्रशासन,न्यायालय
वर्षों से अनसुनी गुहारें एक तरफ

एक तरफ निर्भय कातिल का विजय जुलूस
बेबस बेवा की चीत्कारें एक तरफ

एक तरफ डिस्को की थापें,रैम्प,शैम्प
कीचड़ में पावं फटकारें  एक तरफ

एक तरफ भूखी आँतों से उठती मितली
भरे पेट की उष्ण डकारें एक तरफ

एक तरफ घर-घर में है अनबूझ अबोला
सडको पर उन्मादी नारे  एक तरफ

एक तरफ बैठकखाना है सजा घास से 
पड़े हाशिये पर घसियारे एक तरफ 

एक तरफ कुल छः फुट की है बालकनी 
दरवाजे, छज्जे, ओसारे  एक  तरफ  

शनिवार, 29 जनवरी 2011

ग़ज़ल

तुम्हारे होठ पर चुप्पी का ताला पड़ गया कैसे
न बोलोगे मिलेगी मुजरिमों को फिर सजा कैसे

वहम बम के धमाकों का सरे-बाज़ार,मंदिर में
न जाने अब छंटेगा मन से ये काला  धुआं कैसे

अगर चावल,मसाले,दाल शौपिंग मॉल बेचेंगे
रहेगी इस तरह जिंदा किराने की दुकां कैसे

जहाँ भूकंप में बिछ  गए कई इमारतों के शव
वहीँ ये फूस वाला झोंपड़ा साबुत बचा कैसे

हमारे नाव के जानिब हवा ना भी बहे तो क्या
भंवर के बीच में हारेंगे हिम्मत हम भला कैसे

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

ग़ज़ल

वर्तमान में करने बैठे हम अतीत की बातें
समझौतों से पटे समय में हार-जीत की बातें

परिचर्चाओं में समेट लें भले समूचे जग को
मगर प्रेमियों को करने दें कृपया प्रीत की बातें

उनी कुरता तन पर हो और घर में रहे लिहाफें
दिल को तभी भली लगती हैं दोस्त शीत की बातें

भग्न हो रही सुन्दरता का भान जरा जो होगा
कविताओं की और करेंगे आप गीत की बातें

एक वक़्त के बाद पड़ेगा हर दस्तूर पुराना
नए प्रसंग में करनी होंगी नई रीत की बातें.

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

माँ-पिताजी

सपने में माँ-पिताजी इकठ्ठे  आये
माँ-पिताजी का प्रेम इकठ्ठे आया
पिताजी ने माँ के हाथों की टोकड़ी ले ली
माँ ने पिताजी की कोहनी थाम ली
दोनों इकठ्ठे चलने लगे
चलते-चलते माँ थक गई और पिता जी झल्ला गए
फिर तालाब  के किनारे,पीपल के पेड़ के नीचे
दोनों सुस्ताने के लिए बैठ गए
माँ ने पिता जी को पंखा किया
पिता जी ने माँ को पानी पिलाया
पानी पी कर माँ ने पिता जी  को ऐसे देखा
कि पिता जी शरमा गए
माँ को पिता जी का शरमाना बड़ा अच्छा लगा
लेकिन पिता जी झट से उठ कर खड़े हो गए
बोले-
चलो चलते है
घर पर बच्चे अकेले होंगे.    

बुधवार, 26 जनवरी 2011

ग़ज़ल

तूफां है जेहन में जिनके,सपने झंझावात के
ग़ज़ल वही बेख़ौफ़ कहेंगे बेपरवा खैरात के

उनको बाहर रोको लीडर खुद ही मिलने आयेंगे
नाहक हरी लान रौन्देंगे ये किसान देहात के

कूड़े के ढेरों में जिनका सारा बचपन बीत गया
आखिर वे कैसे समझेंगे अर्थ कलम,दावात के

रोजाना अख़बार भरे हैं हर सूं भूख,गरीबी से
क्या करना है पढ़ कर किस्से माजी में इफरात के

आओ ढाल दें गर्म लहू को साथी ठन्डे लोहे में
ऐसे कब तक छटपटायेंगे हो बंदी हालात के

मेरा सीधा मतलब था कि प्यार तुम्हे मै करता हूँ
वैसे चाहो तो निकलेंगे कई मतलब हर बात के  

सोमवार, 24 जनवरी 2011

ग़ज़ल

यूँ बाज़ार छलेगा कब तक
यह दुष्चक्र चलेगा कब तक

चोरी तिस पर सीनाजोरी
ये निजाम बदलेगा कब तक

खेतिहर साथी के सिर से
क़र्ज़ का बोझ टलेगा कब तक

गर्म लहू के कतरे पी-पी
जाती,धर्म पलेगा कब तक

बारिश,तेज हवा का झोंका
जलता दिया,जलेगा कब तक

साफ-साफ बतला दे मुझको
सूरज तू निकलेगा कब तक

करना या फिर मरना होगा
आखिर सिर्फ खलेगा कब तक

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

तेरा आना

रात मुझे जब नींद आ गई
मेरे आँगन तुम आई थी.
शरमाई सी सकुचाई थी .
बित्ता-बित्ता पांव बढाती
होठ काटती हंसी दबाती
जाने क्या-क्या सोंच रही थी.
मुझे पता था अभी अचानक
हंसी तुम्हारी फूट पड़ेगी
रक्तिम  अधरों की माला के
सारे मोती  बिखर पड़ेंगे
तुम सागर की किसी लहर सी
नाच उठोगी छम-छम,छम-छम.
तुम धरती पर नहीं हवा पर
यूँ चलती थी डोल-डोल कर
जैसे गोरे  तन के अन्दर
कोई झूला झूल रहा हो.
तुमने जुल्फों को बिखराया उसी तरह से
वैसे ही चमके थे दोनों नैन तुम्हारे
सुर्ख हो गया था वैसे ही रंग तुम्हारा
वही शाम चेहरे पे तेरे ठहर गई थी.
हम इतने दिन बाद मिलेंगे
तुमको हरगिज यकीं नहीं था .
तुम बसंत की मधु बयार सी
बही आ रही थी विस्मित सी .
मै पलकों के पिछवाड़े से
तेरा आना देख रहा था .
मै इक सपना देख रहा था .
मै इक सपना देख रहा था .   

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

ग़ज़ल


पगडण्डीयां, मुंडेर और खलिहानें भूल गए  
पनघट  पे किये वायदे निभाने  भूल गए 

यौवन के चौखटे पे मिस वर्ल्ड के कदम 
परियों के सारे किस्से,अफसाने भूल गए 

डैडी की सभ्यता से ऐसे जुड़े जनाब 
बच्चे पिता का अर्थ,माँ के माने भूल गए 

औलाद की नादानियों से हो खफा मियां
कैसे थे आप खुद भी दीवाने, भूल गए  

सरकार से हड़प ली अनुदान की रकम 
बोनस मजूर का पर कारखाने भूल गए 

जब सामना हुआ तो मेरे होश उड़ गए 
जितने बुने थे मन में वो बहाने भूल गए 

कोशिश भी की तो होठ ये फैले नहीं जरा 
लगता है हम सही में मुस्कुराने भूल गए 

याददाश्त बिगड़ गई है या कुछ और बात है 
फिर आज घर पे चश्मा सिरहाने भूल गए  

बुधवार, 19 जनवरी 2011

ग़ज़ल

पेड़ तो फलदार होता जायेगा
पर पहुँच के पार होता जायेगा

फासले बढ़ते रहेंगे  हर कदम
कारवां बेजार होता जायेगा

यातना बन जाएगी मीठी छुरी
जुल्म कारोबार होता जायेगा

औपचारिक गर्मजोशी से भरा
और भी व्यव्हार होता जायेगा

बस्तियां गमगीन होतीं हों तो हों
राजपथ गुलजार होता जायेगा

भूख,ग़ुरबत को करो पर्दानशीं
इस गली दरबार होता जायेगा

और होते जायेंगे नाखून पैने
तेजतर हथियार होता जायेगा

देखते रहिये हमेशा की तरह
कुछ नया हर बार होता जायेगा  

सोमवार, 17 जनवरी 2011

ग़ज़ल

पटरियों पे दिन औ रातें पत्थरों में कट गई
ज़िन्दगी सौगंध खाते,कठघरों में कट गई

कोठियों के स्वप्न आँखों में रहे बेरोक-टोक
यूँ तो जर्जर उम्र चूते छप्परों में कट गई

इस तरफ की फितरतों में है रजाई की तपिश
उस तरफ की सर्दियाँ तो चीथड़ों में कट गई

क्या ये कम था बस्तियों की साँझ पर बादल घिरे
कि ये बिजली भी अचानक इन घरों में कट गई

देवताओं की इबादत में यकीं करते नहीं
लोग जिनकी जेब मस्जिद-मंदिरों में कट गई

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

ग़ज़ल

आज क्यों है घंटियों का शोर ये संलाप जैसा
क्या पुजारी पढ़ रहा है मंत्र भी चुपचाप जैसा

इन धुआंती भट्टियों में फेंक दो सब कागजात
बाद में शायद मिले कुछ अंगूठे की छाप जैसा

झुनझुना सा इक नरेगा,भूख का विस्तृत भूगोल
वंश का वरदान हो फिर क्यूँ नहीं अभिशाप जैसा

मैंने पूछा चोर का हुलिया बताओ तो कहा
मूंछ उसकी आप जैसी,रंग उसका आप जैसा

आंच पर पानी का बर्तन बन गई है ज़िन्दगी
खौलता विश्वास हरदम और रिश्ता भाप जैसा

ग़ज़ल

इक दिन सोई दुनिया में वाकई हलचल ले आयेंगे
ना देखा ना सुना कभी हो ऐसे पल ले आयेंगे

नयनों का विस्तार रंगेगे खूब रुपहले रंगों से
जैसे सूखी धरती की खातिर बादल ले आयेंगे

तुम अपनी मर्जी के रस्ते और दिशाएं चुन लेना
चूँकि खुले विकल्पों के हम जंगल ले आयेंगे

एक ओर नादान पुत्र की रोज बदलती फ़रमाइश
वहीँ पिता का वही जवाब,बेटा कल ले आयेंगे

एक जरा सा भ्रम टूटे गर झूठ,जुर्म की ताकत का
लोग गवाही देने को फिर खुद ही चल चल आयेंगे