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शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

ग़ज़ल

इस तरह खुद को सताते क्यूँ हैं
प्यार करते हैं, छुपाते क्यूँ हैं

कितने पहलू हैं जिंदगानी के
हम शिकन माथ पे लाते क्यूँ हैं

चलिए जाने भी उन्हें दीजे अब
बीते लम्हों को बुलाते क्यूँ हैं

लोग घर-बार की निजी बातें
यूँ सरेआम सुनाते क्यूँ हैं

अंत में आँख छलक आती है
आप इतना भी हंसाते क्यूँ हैं  

ग़ज़ल

न रोना ,मुस्कुराना चाहता है
खलिश दिल में दबाना चाहता है

पिता के व्यंग्य  से आहत बहुत है
वो अब कुछ कर दिखाना चाहता है

रुपय्या सूद पर ले कर चला है
शहर जा कर कमाना चाहता है

सितारों की कोई चाहत नहीं है
मुनासिब  मेहनताना चाहता है

जरुरी है नहीं बुजदिल ही होगा
ये मुमकिन है भुलाना चाहता है

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

ग़ज़ल

बहुत लम्बी लड़ाई लड़ रहा है
क्यूँ अपनी जग हँसाई कर रहा है

वो उन गलियों को कैसे भूल जाये
उन्ही गलियों में उसका घर रहा है

इबादतगाह,गिरिजाघर,शिवालय
मगर होना है जो होकर रहा है

मै दुनिया से हूँ या दुनिया है मुझसे
भरम मन में मेरे अक्सर रहा है

मुकद्दर में भले सहरा लिखा है
कोई साया है जो सर पर रहा है

तजुर्बे का तकाजा तो यही  है
सबेरा शाम से बेहतर रहा है