एक तो तुम भी बहुत दूर खड़े थे मुझसे
और आवाज़ मिरी कांपती थी वैसे ही
तुम अगर सुनते भी तो क्यूँ सुनते
नर्म,मासूम से जज्बात जुबाँ चाहते थे
जर्द होठों पे इक जुंबिश के सिवा कुछ न हुआ
थी खलिश सीने मे पैबस्त औ पैबस्त रही
हौसला मैंने बहुत बार किया होगा पर
जाने पैरों में कहाँ से पड़ी ये जंजीरें
मै दो कदम भी चलता तो वहीँ गिर जाता
एक दीवार दरमियान रही झीनी सी
देख तो सकते थे हम पार एक दूजे को
तोडना उसको मेरे वश में नहीं था या रब
हसरतें दिल में दबा ली इन्ही उम्मीदों पे
कल्ह जो चमकेगा चाँद पूनम का
मेरी किस्मत पे मेहरबां होगा
चांदनी तीरगी को पी लेगी
मै भी खोये हुए अशआरों को
उस उजाले में ढूंढ़ लूँ शायद .
खुबसूरत नज़्म .....वाह
जवाब देंहटाएंbahut badhiya !
जवाब देंहटाएं"एक दीवार दरमियान रही झीनी सी
देख तो सकते थे हम पार एक दूजे को
तोडना उसको मेरे वश में नहीं था या रब"
ye pankitya bahut marmsparshi hain
दोस्त, बस आमीन ही कह सकता हूँ।
जवाब देंहटाएंआह या वाह
दोनों ही नाकाफी !
हरा रंग तेरे ब्लॉग के आसमां का दिल की आँखों को
खूब भाया !
इस पर कहीं कहीं सिंदूरी नारंगी गुलाबी नीला रंग भी थोड़ा उड़ेल दो
तो कैसा हो !
नज़्म वाकई सुंदर बनी है।
दिल को मांजते रहो,आँखों को संवारते रहो।
कलम ख़ुद ब ख़ुद पैनी और पानीदार हो जाएगी।
अपनापा भरी शुभकामनाएँ।
तुम्हारा
राहुल।