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सोमवार, 21 जून 2010

ग़ज़ल

वहां क्यूँ हैं जहाँ होने का कुछ मतलब नहीं मिलता
कोई आदत नहीं मिलती किसी से ढब नहीं मिलता

हकीकत में भटकना ही तुम्हे मंजूर है वरना
अगर तुम चाहते बढ़ना तो रस्ता कब नहीं मिलता

मुझे मालूम है ये दोस्ती भी टूट जाएगी 
लहू लहजा तो मिलता है मगर मजहब नहीं मिलता

वो होता है पसीने की चमकती बूँद में बैठा
बुतों को पूजने वालों को हरगिज रब नहीं मिलता

हमारा भी है दिल और दिल का बोलो क्या भरोसा है
मिलेगा अपनी मर्जी से यूँ  ही जब तब नहीं मिलता  

3 टिप्‍पणियां:

  1. ए़क और सुंदर और प्रभावशाली ग़ज़ल .. खास तौर पर ये पंक्ति तो लाजवाब है :
    "वो होता है पसीने की चमकती बूँद में बैठा
    बुतों को पूजने वालों को हरगिज रब नहीं मिलता"
    शुभकामना सहित

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  2. आज पहली बार आना हुआ पर आना सफल हुआ देर से आने का दुःख भी बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति किस किस बात की तारीफ करूँ बस बेमिसाल..... लाजवाब.......

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  3. "हकीकत में भटकना ही तुम्हे मंजूर है वरना
    अगर तुम चाहते बढ़ना तो रस्ता कब नहीं मिलता"
    "मुझे मालूम है ये दोस्ती भी टूट जाएगी
    लहू लहजा तो मिलता है मगर मजहब नहीं मिलता"

    पहले तो कहूँगा की बहुत खूब....... मेरी तरफ से कुछ सुझाव हैं अगर पसंद आयें तो .....
    " हकीकत में भटकना ही तुम्हे मंजूर है वरना
    चाहते तुम गर बढ़ना तो रस्ता क्यूँ नहीं मिलता"
    "मुझे मालूम है ये दोस्ती भी टूट जाएगी एक दिन
    दिल मिलते हैं हमारे,मगर मजहब नहीं मिलता"

    ये सिर्फ मेरे सुझाव हैं अन्यथा मत लेना और मैं जानना चाहता हूँ की इस ब्लॉग पर लिखा सब तुम्हारा है ?

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