पटरियों पे दिन औ रातें पत्थरों में कट गई
ज़िन्दगी सौगंध खाते,कठघरों में कट गई
कोठियों के स्वप्न आँखों में रहे बेरोक-टोक
यूँ तो जर्जर उम्र चूते छप्परों में कट गई
इस तरफ की फितरतों में है रजाई की तपिश
उस तरफ की सर्दियाँ तो चीथड़ों में कट गई
क्या ये कम था बस्तियों की साँझ पर बादल घिरे
कि ये बिजली भी अचानक इन घरों में कट गई
देवताओं की इबादत में यकीं करते नहीं
लोग जिनकी जेब मस्जिद-मंदिरों में कट गई
सौरभ जी,
जवाब देंहटाएंवाह...वाह....दाद कबूल करें.....
ये शेर बहुत ही अच्छे लगे...
"इस तरफ की फितरतों में है रजाई की तपिश
उस तरफ की सर्दियाँ तो चीथड़ों में कट गई
देवताओं की इबादत में यकीं करते नहीं
लोग जिनकी जेब मस्जिद-मंदिरों में कट गई"
और हो सके तो इस पंक्ति को कुछ यूँ लिख दे....
यूँ तो जर्जर उम्र टपकते छप्परों में कट गई
देवताओं की इबादत में यकीं करते नहीं
जवाब देंहटाएंलोग जिनकी जेब मस्जिद-मंदिरों में कट गई
भाई वाह...दाद कबूल करें...
नीरज