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सोमवार, 24 जनवरी 2011

ग़ज़ल

यूँ बाज़ार छलेगा कब तक
यह दुष्चक्र चलेगा कब तक

चोरी तिस पर सीनाजोरी
ये निजाम बदलेगा कब तक

खेतिहर साथी के सिर से
क़र्ज़ का बोझ टलेगा कब तक

गर्म लहू के कतरे पी-पी
जाती,धर्म पलेगा कब तक

बारिश,तेज हवा का झोंका
जलता दिया,जलेगा कब तक

साफ-साफ बतला दे मुझको
सूरज तू निकलेगा कब तक

करना या फिर मरना होगा
आखिर सिर्फ खलेगा कब तक

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सौरभ जी.....बेहतरीन ग़ज़ल है ....हर शेर बेहतरीन है...कोई किस क़दर किसी से कम नहीं....

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  2. ग़ज़ल अच्छी लगी..... हर शेर आज की दुनिया की अलग अलग तस्वीर दिखा रहे हैं.. बहुत बढ़िया..

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  3. ग़ज़ल अच्छी है...ग़ज़ल के व्याकरण पर ध्यान दें तो सोने में सुहागा हो जायेगा...
    नीरज

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