यूँ बाज़ार छलेगा कब तक
यह दुष्चक्र चलेगा कब तक
चोरी तिस पर सीनाजोरी
ये निजाम बदलेगा कब तक
खेतिहर साथी के सिर से
क़र्ज़ का बोझ टलेगा कब तक
गर्म लहू के कतरे पी-पी
जाती,धर्म पलेगा कब तक
बारिश,तेज हवा का झोंका
जलता दिया,जलेगा कब तक
साफ-साफ बतला दे मुझको
सूरज तू निकलेगा कब तक
करना या फिर मरना होगा
आखिर सिर्फ खलेगा कब तक
यह दुष्चक्र चलेगा कब तक
चोरी तिस पर सीनाजोरी
ये निजाम बदलेगा कब तक
खेतिहर साथी के सिर से
क़र्ज़ का बोझ टलेगा कब तक
गर्म लहू के कतरे पी-पी
जाती,धर्म पलेगा कब तक
बारिश,तेज हवा का झोंका
जलता दिया,जलेगा कब तक
साफ-साफ बतला दे मुझको
सूरज तू निकलेगा कब तक
करना या फिर मरना होगा
आखिर सिर्फ खलेगा कब तक
वाह सौरभ जी.....बेहतरीन ग़ज़ल है ....हर शेर बेहतरीन है...कोई किस क़दर किसी से कम नहीं....
जवाब देंहटाएंग़ज़ल अच्छी लगी..... हर शेर आज की दुनिया की अलग अलग तस्वीर दिखा रहे हैं.. बहुत बढ़िया..
जवाब देंहटाएंग़ज़ल अच्छी है...ग़ज़ल के व्याकरण पर ध्यान दें तो सोने में सुहागा हो जायेगा...
जवाब देंहटाएंनीरज