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शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

तेरा आना

रात मुझे जब नींद आ गई
मेरे आँगन तुम आई थी.
शरमाई सी सकुचाई थी .
बित्ता-बित्ता पांव बढाती
होठ काटती हंसी दबाती
जाने क्या-क्या सोंच रही थी.
मुझे पता था अभी अचानक
हंसी तुम्हारी फूट पड़ेगी
रक्तिम  अधरों की माला के
सारे मोती  बिखर पड़ेंगे
तुम सागर की किसी लहर सी
नाच उठोगी छम-छम,छम-छम.
तुम धरती पर नहीं हवा पर
यूँ चलती थी डोल-डोल कर
जैसे गोरे  तन के अन्दर
कोई झूला झूल रहा हो.
तुमने जुल्फों को बिखराया उसी तरह से
वैसे ही चमके थे दोनों नैन तुम्हारे
सुर्ख हो गया था वैसे ही रंग तुम्हारा
वही शाम चेहरे पे तेरे ठहर गई थी.
हम इतने दिन बाद मिलेंगे
तुमको हरगिज यकीं नहीं था .
तुम बसंत की मधु बयार सी
बही आ रही थी विस्मित सी .
मै पलकों के पिछवाड़े से
तेरा आना देख रहा था .
मै इक सपना देख रहा था .
मै इक सपना देख रहा था .   

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