आज क्यों है घंटियों का शोर ये संलाप जैसा
क्या पुजारी पढ़ रहा है मंत्र भी चुपचाप जैसा
इन धुआंती भट्टियों में फेंक दो सब कागजात
बाद में शायद मिले कुछ अंगूठे की छाप जैसा
झुनझुना सा इक नरेगा,भूख का विस्तृत भूगोल
वंश का वरदान हो फिर क्यूँ नहीं अभिशाप जैसा
मैंने पूछा चोर का हुलिया बताओ तो कहा
मूंछ उसकी आप जैसी,रंग उसका आप जैसा
आंच पर पानी का बर्तन बन गई है ज़िन्दगी
खौलता विश्वास हरदम और रिश्ता भाप जैसा
सौरभ जी आपकी यह ग़ज़ल खुल से आज के हालात को बया कर रही है..
जवाब देंहटाएं"आंच पर पानी का बर्तन बन गई है ज़िन्दगी
जवाब देंहटाएंखौलता विश्वास हरदम और रिश्ता भाप जैसा"
प्रिय सौरभ समय और समाज को जितने अच्छे से एक रचनाकार समझ सकता है,उतना शायद ही कोई और. वर्तमान समय में स्थितियां वाकई ऐसी ही हैं. गजल की सम्प्रेषणनीयता गजब की है.काफी समय बाद आ पाया हूँ.
सौरभ जी....शानदार अभिव्यक्ति है...
जवाब देंहटाएंमैंने पूछा चोर का हुलिया बताओ तो कहा
जवाब देंहटाएंमूंछ उसकी आप जैसी,रंग उसका आप जैसा
आंच पर पानी का बर्तन बन गई है ज़िन्दगी
खौलता विश्वास हरदम और रिश्ता भाप जैसा
इन दोनों शेरों पर भरपूर तालियाँ....वाह जी वाह...दाद कबूल करें...
नीरज