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गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

वे

वे एक-एक कर 
आँखों के परदे उतार रहे थे
आईने पर गर्द की परत 
काई की तरह जमी हुई थी 
वे मिलकर 
मेहनत से उसे साफ़ कर रहे थे 
मगर फिर भी 
उनकी शक्लें फिसल जा रहीं थीं 

रातों की सियाही 
उनकी गोद में किसी चाकू की तरह आ गिरी थी 
वे बेरहमी से अपनी नींदें छील रहे थे 
हड्डियाँ उन्हें बेड़ियों की तरह जकड़ चुकी थीं 
अपने जिस्मों से 
बाहर निकलने की उनकी हर कोशिश 
बेकार चली जाती  थी.    

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