जानता हूँ कि इस शून्य से खुद को गुणा करूँ
तो स्वयं शून्य में तब्दील हो जाऊंगा
लेकिन आँखों की पुतलियों में शून्य जैसे जम सा गया है
और धीरे-धीरे पिघल कर
पलकों को बोझिल बना रहा है
शून्य के शक्ल की एक स्पंज की गेंद
लगता है कलेजे में ढब-ढब कर रही है
और किसी क्षण उछल कर
बाहर आना चाहती है
कान जो आवाजें सुन रहे हैं
वे भी दिमाग में पहुँच कर
शून्य का बुलबुला बन जा रहे हैं
शून्य तो मुझे बार-बार परे धकेल रहा है
मै हीं इस शून्य के भीतर चल कर
ना जाने कहाँ पंहुचना चाहता हूँ.
तो स्वयं शून्य में तब्दील हो जाऊंगा
लेकिन आँखों की पुतलियों में शून्य जैसे जम सा गया है
और धीरे-धीरे पिघल कर
पलकों को बोझिल बना रहा है
शून्य के शक्ल की एक स्पंज की गेंद
लगता है कलेजे में ढब-ढब कर रही है
और किसी क्षण उछल कर
बाहर आना चाहती है
कान जो आवाजें सुन रहे हैं
वे भी दिमाग में पहुँच कर
शून्य का बुलबुला बन जा रहे हैं
शून्य तो मुझे बार-बार परे धकेल रहा है
मै हीं इस शून्य के भीतर चल कर
ना जाने कहाँ पंहुचना चाहता हूँ.
शून्य का सुन्दर विम्ब.. इसी शून्य से तो है जीवन.. बढ़िया कविता..
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