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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

हाथ

एक पल के  लिए उन्हें सचमुच लगा
कि वे उसे पकड़ ही लेंगे
लेकिन उसे उनकी पकड़ में आना था नहीं
सो नहीं आया
वक़्त उनके हाथों से किसी पारे की मानिंद
फिसलता रहा,छिटकता रहा
छकाता रहा

उन्होंने पानी में कंकड़ फेंके
और लहरियों  को गिनने की कोशिश की

उन हाथों ने रेत के ढूहे भी बनाये
मगर चपल पैर भी वहीँ थे
जो दौड़ना चाहते थे
बेखबर पैरों ने रेत के ढूहों को ठोकर मार दी

हाथ कांपते रहे रह-रह कर
आखिर वे हाथ इतने निर्मोही कैसे हो गए
कि एक दिन अपना ही गला रेतने लगे.  

5 टिप्‍पणियां:

  1. आज आपके ब्लॉग पर आ कर बहुत अच्छा लगा...आपकी लेखन शैली बहुत प्रभावशाली है...आपकी इस अप्रतिम रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें...आप ग़ज़ल प्रेमी भी हैं जान कर बेहद ख़ुशी हुई...

    नीरज

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  2. वसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !

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  3. सौरभ जी...

    इस पोस्ट के लिए हैट्स ऑफ टू यू......और शब्द नहीं हैं मेरे पास.....शुभकामनायें|

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  4. बढ़िया कविता.. नए तरह का विम्ब प्रोयोग..

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