एक पल के लिए उन्हें सचमुच लगा
कि वे उसे पकड़ ही लेंगे लेकिन उसे उनकी पकड़ में आना था नहीं
सो नहीं आया
वक़्त उनके हाथों से किसी पारे की मानिंद
फिसलता रहा,छिटकता रहा
छकाता रहा
उन्होंने पानी में कंकड़ फेंके
और लहरियों को गिनने की कोशिश की
उन हाथों ने रेत के ढूहे भी बनाये
मगर चपल पैर भी वहीँ थे
जो दौड़ना चाहते थे
बेखबर पैरों ने रेत के ढूहों को ठोकर मार दी
हाथ कांपते रहे रह-रह कर
आखिर वे हाथ इतने निर्मोही कैसे हो गए
कि एक दिन अपना ही गला रेतने लगे.
आज आपके ब्लॉग पर आ कर बहुत अच्छा लगा...आपकी लेखन शैली बहुत प्रभावशाली है...आपकी इस अप्रतिम रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें...आप ग़ज़ल प्रेमी भी हैं जान कर बेहद ख़ुशी हुई...
जवाब देंहटाएंनीरज
Beautiful as always.
जवाब देंहटाएंIt is pleasure reading your poems.
वसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसौरभ जी...
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए हैट्स ऑफ टू यू......और शब्द नहीं हैं मेरे पास.....शुभकामनायें|
बढ़िया कविता.. नए तरह का विम्ब प्रोयोग..
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