१.
सहर तो रेशमी ही थी
नजरें हीं मिचमिचा रहीं थीं
अँधेरा एक जूनून की तरह तारी था
सीलन लगे अफसानों की कोई दिन-रात
सीवन उधेड़ रहा था
परिंदा बदन पर आ कर पल भर को बैठता था
और हाथ बढ़ाते हीं फुर्र से उड़ जाता था
२.
लफ्ज आगे बढ़ रहे थे
मानी पीछे छूटता जा रहा था
चेहरा खुशमिजाज जान पड़ता था
माथे पर सिलवटें नही थीं
रोजमर्रा के काम फुर्ती से निपटाए जा रहे थे
कैसे जाहिर होता
दुःख
रगों में उतर चुका था
लहू के साथ बह रहा था
सहर तो रेशमी ही थी
नजरें हीं मिचमिचा रहीं थीं
अँधेरा एक जूनून की तरह तारी था
सीलन लगे अफसानों की कोई दिन-रात
सीवन उधेड़ रहा था
परिंदा बदन पर आ कर पल भर को बैठता था
और हाथ बढ़ाते हीं फुर्र से उड़ जाता था
२.
लफ्ज आगे बढ़ रहे थे
मानी पीछे छूटता जा रहा था
चेहरा खुशमिजाज जान पड़ता था
माथे पर सिलवटें नही थीं
रोजमर्रा के काम फुर्ती से निपटाए जा रहे थे
कैसे जाहिर होता
दुःख
रगों में उतर चुका था
लहू के साथ बह रहा था
नए तरह की कविता.. दुःख का आधुनिक आयाम..
जवाब देंहटाएंसौरभ जी,
जवाब देंहटाएंदूसरा वाला बहुत अच्छा लगा.....बहुत खूबसूरत|