नदी दो किनारों के बीच से
होकर बह रही है
पहला किनारा थोडा ज्यादा खिलंदड है
जब तब चुहल से
अपना पानी दूसरे की ओर ठेल देता है
घुंघराले बालों की लट जैसी लहरियां
उभरती हैं
और नदी के पानी में डूब जाती हैं
दूसरा किनारा दीखता तो संजीदा है
पर मौजें उसे भी छूती हैं
और मेला भी वहीँ लगता है
ऐसे में उसकी भरसक कोशिश होती है
कि कुछ खील-बताशे
पहले की ओर धकेले जाएँ
नदी किसी बुढ़िया की तरह
दिन-रात उनकी चौकसी करती है
वे भी इसी ताक में रहते हैं
कि कब नदी को झपकी आये
और उनका खेल शुरू हो
किनारे जानते हैं कि
नदी जिद्दी है
उन्हें ताउम्र अलग रखेगी
लेकिन इस गम से
वे खेलना क्यों छोड़ दें.
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