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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

किनारे

नदी दो किनारों के बीच से 
होकर बह रही है
पहला किनारा थोडा ज्यादा खिलंदड है 
जब तब चुहल से 
अपना पानी दूसरे की ओर ठेल देता है 
घुंघराले बालों की लट जैसी लहरियां 
उभरती हैं 
और नदी के पानी में डूब जाती हैं

दूसरा किनारा दीखता तो संजीदा है
पर मौजें उसे भी छूती हैं
और मेला भी वहीँ लगता है 
ऐसे में उसकी भरसक कोशिश होती है 
कि कुछ खील-बताशे
पहले की ओर धकेले जाएँ

नदी किसी बुढ़िया की तरह
दिन-रात उनकी चौकसी करती है 
वे भी इसी ताक में रहते हैं 
कि कब नदी को झपकी आये 
और उनका खेल शुरू हो 

किनारे जानते हैं कि 
नदी जिद्दी है 
उन्हें ताउम्र अलग रखेगी
लेकिन इस गम से 
वे खेलना क्यों छोड़ दें. 

  

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