कुल पेज दृश्य

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल

अजब सी ये नई 'चुप' है
गले में फंस गई 'चुप' है 

सड़क पर शोर हो चाहे 
घरों में हर कोई चुप है

घुटे सिर  हैं  पहाड़ो   के
सिकुड़ती हुई नदी चुप है

अँधेरा रात भर का  है 
सुबह तक रौशनी चुप है

मुझे ताज्जुब होता है 
कि कैसे शायरी चुप है 

जो तूफां साथ लाती है
यक़ीनन ये वही 'चुप'है     

1 टिप्पणी: