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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल

मै मसरूफ़,मै मुब्तिला हो चुका था
मै तहरीरों में गुमशुदा हो चुका था 

मेरे साथ इक हादसा हो चुका था 
मेरा मामला अलहदा हो चुका था 

ये असबाब,दौलत,ये शोहरत,ये चर्चा 
मेरे  वास्ते  बेमज़ा  हो  चुका  था 

वो ख्वाहिश,वो शै ,वो जुनूं,वो इबादत 
उमर भर का अब सिलसिला हो चुका था 

गगन में सितारे भी थे,सूर्य भी था 
खुदा जाने वह वक़्त क्या हो चुका था 

गमे-इश्क में ऐसा बिगड़ा नहीं कुछ 
हाँ ये है कि हल्का नशा हो चुका था 

सुकूं भी तो मिलता कहीं न कहीं था 
भले  दर्द  बेइंतिहा  हो चुका  था    

1 टिप्पणी:

  1. बढ़िया ग़ज़ल.. कुछ शेर पहले कहे नहीं गए कभी जैसे...
    "गगन में सितारे भी थे,सूर्य भी था
    खुदा जाने वह वक़्त क्या हो चुका था "

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